सोमवार, 27 दिसंबर 2010

बाघ से आगे दुधवा का जंगल

जंगल की सुबह
जंगलों का रुख करने वाले हमारे पर्यटकों का किसी भी कीमत पर बाघ देखने का जुनून उन्हें अक्सर इन जंगलों में बिखरी बेइंतहा खूबसूरती के प्रति पूरी तरह ठंडा और उदासीन बना देता है.  पर्यटकों की इसी मानसिकता को पहचानते हुए हमारे देश का छोटा से अभयारण्य  भी अपने नाम के साथ टाइगर रिज़र्व का पुछल्ला लगाना नहीं भूलता, फिर चाहे वहां बाघ क्या, गीदड़ देखना भी मुश्किल साबित क्यों न हो. 
उत्तर प्रदेश के सुदूर कोने पर स्थित दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की यात्रा पर सुरेश और अमिताभ के साथ लखनऊ लौटने पर तयशुदा सवाल यही था कि हमने वहां बाघ देखा या नहीं. जब हमने कहा कि नहीं तो उन्होंने अपनी  अनुभवी गर्दन हिलाते हुए कहा, हमें पहले ही मालूम था. जब मैंने पलटकर सवाल पूछा कि क्या आप दुधवा गए हैं?  तो उन्होंने कहा कि नहीं, क्योंकि मुझे पता है कि वहां बाघ वाघ कुछ दिखता नहीं है, सिर्फ वक़्त ख़राब करने का शगल है. 
खेतों की जान सारस का जोड़ा

यह दुधवा का सौभाग्य है कि हमारे वे और उन जैसे दूसरे मित्र अभी तक वहां  पहुँच नहीं पाए हैं. गनीमत है कि  दुधवा अपनी व्यावसायिक एवं व्यापारिक छवि के अभाव में जंगल के रूप में अब तक बचा हुआ है. यदि आप बाघ को देखना चाहते हैं तो वहां हरगिज़ न जाएँ क्योंकि इतने घने अछूते जंगल में उस दुर्लभ प्राणी को ढूंढ पाना काफी मुश्किल होगा. लेकिन यदि आपकी रूचि देश के सबसे सुन्दर शाल वनों को नजदीक से देखने में है तो दुधवा का अछूता सौंदर्य आपको  स्तब्ध कर देगा.
हिमालय की तराई में नेपाल की सीमा के पास फैला दुधवा एक उपजाऊ इलाका है और इसीलिए आने वाले समय में जंगल को बचा सकना शायद उतना ही मुश्किल हो. लखीमपुर, भेरा और पलिया से होकर जाते दुधवा के रास्ते में गन्ने और सरसों के मोहक खेत हैं जिनमें बहुत से सिखों के पास हैं जो कई साल पहले यहाँ बस गए थे. आज भी इन खेतों में आपको सारसों के जोड़े और कौरिल्ला किलकिला  pied  kingfisher हवा में अठखेलियाँ करते दिखाई दे जायेंगे.  


pied kingfisher with fish

शारदा एवं सुहेली नदियों को पार कर कर दुधवा में प्रवेश करते हुए जंगल के मुखातिब होंगे. इस पूरे प्रदेश में पानी कि कोई कमी नहीं हैं और हर छोटी बड़ी नदी की चट्टानों पर मगरमच्छों, कछुओं और पक्षियों को एक साथ सुस्ताता हुआ देख सकते हैं. दुधवा में ६० प्रतिशत तक शाल वनों का जंगल है. अलस्सुबह पेड़ों से छानकर आती सूर्य कि किरणें इसे एक स्वर्णिम आभा में नहला देती हैं.  जंगल के लम्बे रास्तों पर शाल के पेड़ों के बीच हमें एक सियार मिला जो गोया या कि सारे वन की रखवाली की मुद्रा में हमारे ठीक सामने खड़ा था.

शाल वन में सियार

 हर जगह पानी के चलते आप इसमें रहने वाले पक्षियों एवं जानवरों को आप पानी की तलाश में पोखरों के आस पास सिमटा हुआ नहीं पाएंगे.  पानी में अलबत्ता जल पक्षी खूब मिलेंगे. दुधवा का एक और आकर्षण है जंगल के भीतर  आदमकद से ऊंची   'elephant  grass' के बीच से होकर हाथी की पीठ से जंगल से अन्तरंग होना. वर्षों पहले इन जंगलों में गैंडे हुआ करते थे. फिर शिकारियों की हवस ने इन्हें ख़त्म कर दिया. लगभग दो दशक पहले इन्हें दुबारा दुधवा में बसाने के लिए असम के काजीरंगा से कुछ गैंडे  आयात किये गए थे, जो अब इसके घने जंगलों में अपना घर बना चुके हैं. पर्यावरण की दृष्टि से यह एक सफल प्रयोग था. लेकिन देखना  है कि इससे जंगल के बारीक संतुलन में कोई परिवर्तन तो नहीं आता है. 

सर्दियों में नदियों और तालाबों का पानी सुदूर प्रदेशों के पक्षियों को आकर्षित करता है.

बड़चोंच किलकिला kingfisher

 इनके अलावा जो पक्षी यहाँ की ख़ास पहचान हैं उनमें सारस, चंदियारी lesser adjutant  और बड़चोंच किलकिला  stork billed  kingfisher विशेष हैं. 
जंगल में बाघ के अलावा यहाँ शूकर हिरन, साही और तेंदुए भी पाए जाते हैं.
दुधवा में पुनर्जीवित गैंडा



लेकिन इन सबसे ऊपर दुधवा का सबसे बड़ा आकर्षण हैं इसके घने जंगल!

दुधवा से दस किलोमीटर   आगे चन्दन चौकी पड़ती है  जो   नेपाल की सीमा से पहले अंतिम भारतीय गाँव है. इससे आगे सड़क नहीं है.

दुधवा अब भी कमोबेश एक अछूता जंगल है लेकिन यह कहना कठिन है कि इसका यह स्वरुप कितने दिन तक रह पायेगा. अभी ही यहाँ की एक बड़ी समस्या है इसकी मीटर गेज वाली रेल की पटरी जो जंगल के ठीक बीच से गुज़रती दुधवा को दो भागों मैं काटती है और जिसके चलते हर थोड़े समय के बाद जंगल की शाश्वत खामोशी बहुत बेदर्दी से टूटती है. इससे भी भयानक स्थिति है उस पुल की जो दुधवा के रास्ते में शारदा नदी पर रेल की पटरी और सड़क के बीच साझा है. जब ट्रेन आती है तो दोनों तरफ की सड़क रुक जाती है. फिर गाड़ी गुज़र जाने के बाद पहले एक तरफ से यातायात खुलता है, फिर दूसरी तरफ का, और इस अजीबोगरीब कवायत में आपको कई घंटों तक रुकना पड़ सकता है.
 नदी पर बनने वाला नया पुल कब तैयार होगा, यह कोई नहीं बता सकता.


इन सारी  कठिनाईयों के बावजूद दुधवा अभी तक सही सलामत है यही एक बड़ा अजूबा है. लेकिन देखा जाए तो इंसान की ज़मीन और रोटी रोज़ी की लड़ाई किसी के रोके रुकने वाली नहीं है. दुधवा के शाल वनों की क्या बिसात है. देखें यह बहार कितने दिन चलती है!

-- दुधवा से जितेन्द्र भाटिया 

1 टिप्पणी:

  1. जीतेंद्र जी,
    आपका ब्‍लाग बहुत सुंदर है, पर्यावरण में रमते हुए आपने उसे रम्‍य बनाया है. मुंबई में आपकी कमी खलती है.

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