गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

धुआंधार में कचरा

धुआंधार में कचरा
जबलपुर के पास स्थित भैरवघाट   और धुंआधार की प्राकृतिक सुन्दरता स्तब्ध कर देने वाली है. लेकिन यहाँ के बाजारों, मंदिरों और आसपास के क्षेत्रों में ढेर-ढेर कचरे और असामाजिक ढंग से गन्दगी फ़ैलाने वालों की भीड़ देखकर लगता है कि यह शहर अपनी महान प्राकृतिक सम्पदा की देखभाल करने एवं इसे सुरक्षित रखने का ज़रूरी सबक न जाने कब सीखेगा. मेरा मन है के मैं जबलपुर के बाशिंदों के नाम लानत भेजूं जो नियमित रूप से यहाँ आते हैं और मूर्तियों के सामने अत्यंत श्रद्धा भाव से माथा टेकने के बाद जो दल बल सहित धुंआधार में दिन भर की पिकनिक बिताकर शाम को थर्मोकोल की प्लेटों, पत्तलों, पेप्सी की बोतलों, चिप्स के ठोंगों और प्लास्टिक के सामन का वीभत्स ढेर इस पवित्र नदी को समर्पित कर आराम से अपने घरों की और लौट जाते हैं.  अपने विशाल ह्रदय के बावजूद  माँ नर्मदा क्या मूर्तियों के सामने मत्था टेकने वाले इन असामाजिक बाशिंदों और प्रकृति  के साथ घोर अन्याय करने वालों के पापों को माफ़ी देने की दरियादिली दिखा पायेगी?
यह एक विचित्र स्थिति है कि अपने जीवन के सारे अभावों के बावजूद हम अति उत्पादन के ऐसे दौर में हैं जहाँ कोई भी वस्तु जिस क्षण उत्पादित होती है उसी क्षण उसका कचरे में तब्दील होना भी तय हो चुका होता है.  यही नहीं आज हम सूचना के ऐसे प्रलय से अभिशप्त हैं जहाँ हमारे विचार भी जन्म लेने के साथ ही बृहत्तर कचरे का हिस्सा बनते चले जाते हैं.  कचरा पैदा करने को रोकना बहुत मुश्किल है लेकिन सच तो यह है कि हमारे देश में कचरे को सँभालने और सार्वजनिक स्थानों को साफ़ करने की कोई मानसिकता ही नहीं है. बहुत पहले किसी संस्था ने टी वी पर एक अभियान चलाया था जिसमें एक गाना था :
कचरा मत फेंको  और फेंको  तो फेंको डब्बे के अन्दर
दमा दम  मस्त  कलंदर 
रेल की पटरी के दोनों और फैले प्लास्टिक के टनों टन ढेरों को देखकर लगता है कि इतने समय के बाद भी हमने कुछ नहीं सीखा है. यह तो तय है कि इस गैर जिम्मदारी की कीमत आखिरकार कोई तो चुकाएगा ही लेकिन तब तक शायद बहुत बहुत देर हो चुकी होगी ! क्रोएशिया  के लेखक इवान क्लिमा कहते हैं :
" अपने इर्दगिर्द बाढ़ के तरह फैलते कचरे के इन पार्थिव और मानसिक ढेरों को हम हल्के अंदाज़ में रफा दफा नहीं कर सकते. कचरे का यह ढेर हमारी हवा और हमारे जल को ज़हरीला बनाता जा रहा है. उतना ही खतरनाक है बौद्धिक कचरे का वह सैलाब जिसके चलते हमारा दिमाग पूरी तरह कुंद  हो चुका है.  मैं समझता हूँ कि इन दोनों ही तरह के ज़हरों में कोई रिश्ता ज़रूर है क्योंकि कचरा चाहे पार्थिव हो या बौद्धिक, इसका विनाशकारी प्रभाव हर हालत में सर्वथा अपरिवर्तनीय होता है!"

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