बाघों की उलटी गिनती
रणथम्भोर में पिछले दिनों बाघ के दो और बच्चे गाँव वालों द्वारा ज़हर देकर मार दिए गए. बाघों की उलटी गिनती टी वी पर महेंद्र सिंह धोनी द्वारा बताई जाती संख्या से भी तेज़ रफ़्तार से नीचे गिर रही है. गाँव वालों ने स्वीकार किया कि बाघ के बच्चे उनकी बकरियों को शिकार बना रहे थे लिहाज़ा उनके लिए बाघ को ज़हर देकर मरना ज़रूरी हो गया. घटना के बाद जंगल के एक अधिकारी ने कहा कि रणथम्भोर में क्षेत्रफल के मुकाबले बाघों की संख्या बहुत अधिक हो गयी है और इसलिए बाघ बस्ती की ओर आ जाते हैं. यह एक गैरजिम्मेदार बयान है क्योंकि रणथम्भोर के ४० बाघों के मुकाबले कॉर्बेट पार्क में लगभग उतने ही क्षेत्रफल में बाघों की तिगुनी संख्या आराम से रह रही है. तो सवाल उठता है कि बाघों को ज़हर से मारकर ख़त्म करने की नौबत क्यों आई? दरअसल मानव और बाघों के बीच अपनी अपनी स्पेस का संघर्ष ही इस टकराव का असली कारण है. जंगल एवं पार्क के इलाकों से इंसानी बस्तियों को हटाने के लिए इतना कम मुआवजा दिया जाता है कि हटने वाले लोग असंतोष से भरे रहते हैं. यही नहीं बाघ द्वारा मारे जाने वाले मवेशियों के लिए मिलने वाला मुआवजा भी बेहद मामूली होता है. यही नहीं जंगल के अधिकारियों से मिलीभगत के परिणामस्वरूप गाँव वाले अनधिकृत क्षेत्रों में मवेशी चराते हैं. बाघ तो खैर बेहद शर्मीला जानवर है, यह समस्या बाघ से भी अधिक तेंदुओं पर लागू होती है क्योंकि तेंदुआ अक्सर बस्तियों के आसपास देखा जाता है. कहा जाता है कि उसके लिए कुत्ते मनुष्यों के तंदूरी चिकन जैसे लज़ीज़ होते हैं. मुंबई में संजय गाँधी पार्क में वोट बैंक की राजनीति के तहत पार्क की सीमा के भीतर बसे लोगों को हटाने का काम दिखाने का मनोबल नहीं दिखाया जा रहा और यही जानवर और इंसान के बीच की ज़मीन कि लड़ाई का असली कारण है. लेकिन जनसँख्या के बढ़ते दबावों के चलते आप पेड़ों के काटने और जंगल की सीमा को घटाते चले जाने कि प्रक्रिया को कब तक रोक पाएंगे. इस मानसिकता तक पहुँचने के लिए जिस तरह के कदमों कि ज़रुरत है उन तक पहुँचने तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी.