सोमवार, 27 दिसंबर 2010

बाघ से आगे दुधवा का जंगल

जंगल की सुबह
जंगलों का रुख करने वाले हमारे पर्यटकों का किसी भी कीमत पर बाघ देखने का जुनून उन्हें अक्सर इन जंगलों में बिखरी बेइंतहा खूबसूरती के प्रति पूरी तरह ठंडा और उदासीन बना देता है.  पर्यटकों की इसी मानसिकता को पहचानते हुए हमारे देश का छोटा से अभयारण्य  भी अपने नाम के साथ टाइगर रिज़र्व का पुछल्ला लगाना नहीं भूलता, फिर चाहे वहां बाघ क्या, गीदड़ देखना भी मुश्किल साबित क्यों न हो. 
उत्तर प्रदेश के सुदूर कोने पर स्थित दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की यात्रा पर सुरेश और अमिताभ के साथ लखनऊ लौटने पर तयशुदा सवाल यही था कि हमने वहां बाघ देखा या नहीं. जब हमने कहा कि नहीं तो उन्होंने अपनी  अनुभवी गर्दन हिलाते हुए कहा, हमें पहले ही मालूम था. जब मैंने पलटकर सवाल पूछा कि क्या आप दुधवा गए हैं?  तो उन्होंने कहा कि नहीं, क्योंकि मुझे पता है कि वहां बाघ वाघ कुछ दिखता नहीं है, सिर्फ वक़्त ख़राब करने का शगल है. 
खेतों की जान सारस का जोड़ा

यह दुधवा का सौभाग्य है कि हमारे वे और उन जैसे दूसरे मित्र अभी तक वहां  पहुँच नहीं पाए हैं. गनीमत है कि  दुधवा अपनी व्यावसायिक एवं व्यापारिक छवि के अभाव में जंगल के रूप में अब तक बचा हुआ है. यदि आप बाघ को देखना चाहते हैं तो वहां हरगिज़ न जाएँ क्योंकि इतने घने अछूते जंगल में उस दुर्लभ प्राणी को ढूंढ पाना काफी मुश्किल होगा. लेकिन यदि आपकी रूचि देश के सबसे सुन्दर शाल वनों को नजदीक से देखने में है तो दुधवा का अछूता सौंदर्य आपको  स्तब्ध कर देगा.
हिमालय की तराई में नेपाल की सीमा के पास फैला दुधवा एक उपजाऊ इलाका है और इसीलिए आने वाले समय में जंगल को बचा सकना शायद उतना ही मुश्किल हो. लखीमपुर, भेरा और पलिया से होकर जाते दुधवा के रास्ते में गन्ने और सरसों के मोहक खेत हैं जिनमें बहुत से सिखों के पास हैं जो कई साल पहले यहाँ बस गए थे. आज भी इन खेतों में आपको सारसों के जोड़े और कौरिल्ला किलकिला  pied  kingfisher हवा में अठखेलियाँ करते दिखाई दे जायेंगे.  


pied kingfisher with fish

शारदा एवं सुहेली नदियों को पार कर कर दुधवा में प्रवेश करते हुए जंगल के मुखातिब होंगे. इस पूरे प्रदेश में पानी कि कोई कमी नहीं हैं और हर छोटी बड़ी नदी की चट्टानों पर मगरमच्छों, कछुओं और पक्षियों को एक साथ सुस्ताता हुआ देख सकते हैं. दुधवा में ६० प्रतिशत तक शाल वनों का जंगल है. अलस्सुबह पेड़ों से छानकर आती सूर्य कि किरणें इसे एक स्वर्णिम आभा में नहला देती हैं.  जंगल के लम्बे रास्तों पर शाल के पेड़ों के बीच हमें एक सियार मिला जो गोया या कि सारे वन की रखवाली की मुद्रा में हमारे ठीक सामने खड़ा था.

शाल वन में सियार

 हर जगह पानी के चलते आप इसमें रहने वाले पक्षियों एवं जानवरों को आप पानी की तलाश में पोखरों के आस पास सिमटा हुआ नहीं पाएंगे.  पानी में अलबत्ता जल पक्षी खूब मिलेंगे. दुधवा का एक और आकर्षण है जंगल के भीतर  आदमकद से ऊंची   'elephant  grass' के बीच से होकर हाथी की पीठ से जंगल से अन्तरंग होना. वर्षों पहले इन जंगलों में गैंडे हुआ करते थे. फिर शिकारियों की हवस ने इन्हें ख़त्म कर दिया. लगभग दो दशक पहले इन्हें दुबारा दुधवा में बसाने के लिए असम के काजीरंगा से कुछ गैंडे  आयात किये गए थे, जो अब इसके घने जंगलों में अपना घर बना चुके हैं. पर्यावरण की दृष्टि से यह एक सफल प्रयोग था. लेकिन देखना  है कि इससे जंगल के बारीक संतुलन में कोई परिवर्तन तो नहीं आता है. 

सर्दियों में नदियों और तालाबों का पानी सुदूर प्रदेशों के पक्षियों को आकर्षित करता है.

बड़चोंच किलकिला kingfisher

 इनके अलावा जो पक्षी यहाँ की ख़ास पहचान हैं उनमें सारस, चंदियारी lesser adjutant  और बड़चोंच किलकिला  stork billed  kingfisher विशेष हैं. 
जंगल में बाघ के अलावा यहाँ शूकर हिरन, साही और तेंदुए भी पाए जाते हैं.
दुधवा में पुनर्जीवित गैंडा



लेकिन इन सबसे ऊपर दुधवा का सबसे बड़ा आकर्षण हैं इसके घने जंगल!

दुधवा से दस किलोमीटर   आगे चन्दन चौकी पड़ती है  जो   नेपाल की सीमा से पहले अंतिम भारतीय गाँव है. इससे आगे सड़क नहीं है.

दुधवा अब भी कमोबेश एक अछूता जंगल है लेकिन यह कहना कठिन है कि इसका यह स्वरुप कितने दिन तक रह पायेगा. अभी ही यहाँ की एक बड़ी समस्या है इसकी मीटर गेज वाली रेल की पटरी जो जंगल के ठीक बीच से गुज़रती दुधवा को दो भागों मैं काटती है और जिसके चलते हर थोड़े समय के बाद जंगल की शाश्वत खामोशी बहुत बेदर्दी से टूटती है. इससे भी भयानक स्थिति है उस पुल की जो दुधवा के रास्ते में शारदा नदी पर रेल की पटरी और सड़क के बीच साझा है. जब ट्रेन आती है तो दोनों तरफ की सड़क रुक जाती है. फिर गाड़ी गुज़र जाने के बाद पहले एक तरफ से यातायात खुलता है, फिर दूसरी तरफ का, और इस अजीबोगरीब कवायत में आपको कई घंटों तक रुकना पड़ सकता है.
 नदी पर बनने वाला नया पुल कब तैयार होगा, यह कोई नहीं बता सकता.


इन सारी  कठिनाईयों के बावजूद दुधवा अभी तक सही सलामत है यही एक बड़ा अजूबा है. लेकिन देखा जाए तो इंसान की ज़मीन और रोटी रोज़ी की लड़ाई किसी के रोके रुकने वाली नहीं है. दुधवा के शाल वनों की क्या बिसात है. देखें यह बहार कितने दिन चलती है!

-- दुधवा से जितेन्द्र भाटिया 

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

रखवाले ही जब हत्यारे हों

बाघों को लेकर मीडिया की किलो बाइट्स इन दिनों तेज़ से तेजतर सुनाई देने लगी हैं. बालीवुड के सबसे बड़े सितारे अमिताभ बच्चन भी इधर नवरत्न तेल के टेंशन से मिली पेंशन में वक्त काटने के लिए हमारे राष्ट्रीय जानवर बाघ की वकालत में परदे पर उतर आये हैं.  लेकिन सदाशयता से ही अगर बाघों की जनसंख्या बढ़नी होती तो अब तक देश में लाख दो लाख हो चुके होते.  अंग्रेजी की लिप सर्विस मात्र से बाघों को कितनी सुरक्षा मुहय्या होगी यह हमें समझाने  की ज़रुरत नहीं.  मेरे एक पर्यावरण मित्र जो अभी हाल ही में ताडोबा से लौटे हैं, कहते हैं कि जंगल बचेगा तब तो बाघ का नंबर आएगा.  बाघ के समर्थन में ऑटोग्राफ देकर अपने दायित्व से मुक्त हो जाने वालों के लिए यह समझना ज़रूरी है कि बाघ की गिनती कोई स्वतंत्र आंकड़ा  नहीं है, बल्कि जंगल, पेड़, जानवर  और पक्षी सब इस परिवेश में एक दूसरे से जुड़े हुए सवालों के जवाब मांगते हैं. हमारे आशावादी विशेषज्ञों का मानना है कि फ़िलहाल यदि जंगलों की कटाई पर अंकुश लगाया जा सके तो आज भी हमारे जंगल लगभग दस हज़ार बाघों को रख सकने में समर्थ हैं.  लेकिन यह आंकड़ा तो बहुत दूर की  बात है,  हम पहले अपना मन तो साफ कर लें कि हमें पर्यावरण चाहिए या नहीं. और मन की इस सफाई  की दरकार अमिताभ बच्चन या दूसरे हस्ताक्षरकर्ताओं को नहीं बल्कि उन अधिकारियों और सरकार के प्रतिनिधियों को है जो एक तरफ  अपनी लफ्फाजी और लिप सर्विस से बाज़ नहीं आते और दूसरी ओर जिनके हाथ स्वयं उसी डाल को काट रहे होते हैं जिसपर हम और आप बैठे हैं.  पर्यावरण के सवाल पर जब रखवाले ही हत्यारों का किरदार अदा करने लगें तो फिर इस विश्वासघात से न जंगल बच सकता है और न ही उसमें रहने वाला बाघ.

चंद्रपुर में स्थित ताडोबा व्याघ्र प्रकल्प के भीतर कई ज़ोन हैं.  जंगल में जाने वाली गाड़ियों को एक बार में सिर्फ एक ही ज़ोन में जाने का परमिट मिलता है. गाड़ियों  का बिना इजाज़त का एक ज़ोन से दूसरे ज़ोन में प्रवेश करना संगीन अपराध है. लेकिन आप हर रोज़ लाल बत्ती वाली गाड़ियों को ताले खुलवाकर एक ज़ोन से दूसरे में जाता देख सकते हैं और दुखद यह भी है कि इन गाड़ियों में से हरेक में अपने आकाओं को खुश करने में लगा कम से कम एक वन अधिकारी भी साथ दिखाई दे जायेगा.  सभी राष्ट्रीय पार्कों  की तरह रणथम्भोर भी जून से लेकर सितम्बर तक बंद रहता है. यह वन के जीवों की सुरक्षा एवं ब्रीडिंग का समय होता है जिसमें मनुष्यों का अनावश्यक खलल नुकसानदेह समझा जाता है.  पार्कों के इस शाश्वत नियम का उल्लंघन कर अब राजस्थान की  सरकार विदेशी पर्यटकों को अगस्त और सितम्बर के महीनों में रणथम्भोर में प्रवेश की विशेष अनुमति देने वाली है ताकि पैसे वाले पर्यटकों को किसी भी कीमत पर बाघ दिखाया जा सके .  बहुत से व्यर्थ मामलों पर अपनी टांग अड़ाने वाले जयराम रमेश इस मामले पर अब तक अपनी चुप्पी साधे हैं.  बांधवगढ़  में अधिकारियों की मिलीभगत से हुई  बाघिन की हत्या  का मामला और भी दर्दनाक है. जिला पंचायत के प्रमुख के साथ यहाँ रेंज ऑफिसर न सिर्फ रात के समय बिना इजाज़त के जंगल में घुसे बल्कि अपने वाहन से उन्होंने एक बाघिन पर जानलेवा टक्कर भी मारी जिसके बाद उसकी मृत्यु हो गयी. 

हमारे जंगलों में रखवालों के हत्यारों में बदलने की यह घटनाएँ आम हो चुकी हैं. हमारा शासक और अधिकारी वर्ग जब तक अपनी शक्ति के हथियार डालकर सच्चे मन से पर्यावरण का सम्मान करना नहीं सीखता, तब तक शाहरुख़ के डान की ही तरह अपने इस खूबसूरत जीव एवं इसके परिवेश को बचाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी होगा.

रविवार, 30 मई 2010

सुदूर हिमालय में पर्यावरण

सुदूर हिमालय में पर्यावरण
शायद पर्यावरण के क्षेत्र में हिमाचल देश के दूसरे प्रान्तों से कहीं आगे है. यहाँ प्लास्टिक के प्रयोग पर लगभग पूरा प्रतिबन्ध है. अभी अभी हिमाचल में स्थित ग्रेट हिमालयन पार्क से लौटा हूँ. इसके लिए दिल्ली से मनाली जाने वाली मुख्य सड़क पर कुल्लू की सुरंग से पहले औट में उतरना होता है. फिर वहां से तीर्थन नदी के किनारे किनारे सड़क के रास्ते आगे साईरोपा तक. नदी बहुत रफ़्तार से नीचे उतरती है. यह जंगल का अछूता किनारा है. यदि आप पहाड़ में शहरों वाली भगदड़ देखना चाहते हैं तो यहाँ न आयें. लेकिन प्रकृति प्रेमियों के लिए यह जगह किसी स्वर्ग से कम नहीं होगी. बुरांश या रोडेडरौन यहाँ का राष्ट्रीय फूल है. अप्रैल के महीने में यहाँ बुरांश से लदी सुर्ख डालियाँ हर जगह दिखाई देंगी. साईरोपा में हमारा ठहरना वहां के पर्यावरण केंद्र में हुआ जिसकी देखभाल का जिम्मा वन अधिकारी अंकित सूद पर है जो हम जैसे सैलानियों की देखभाल करने के साथ साथ पर्यावरण का महत्वपूर्ण काम भी कर रहे हैं. साईरोपा से आसमान साफ़ होने पर हिमालय का सुन्दर दृश्य दिखाई देता है. हिमालयन पार्क के लिए कुछ आगे जाकर बस छोड़ देनी पड़ती है और पैदल कोई दस किलोमीटर का पैदल सफ़र है. इस यात्रा पर हमारे साथ थे अंकित के भाई पंकी सूद जिनका अपना एक दिलचस्प इतिहास है. कई सालों तक चरस के शिकार होने के बाद पंकी ने एक दिन नशा त्याग दिया और अब वह अपने भाई के साथ पर्यावरण के काम में जुटे हैं. वे  स्थानीय महिलाओं को प्रशिक्षण भी देते हैं.
देखा जाये तो इस प्रदेश में पर्यावरण का काम बेहद मुश्किल है और इसके लिए सुविधाओं की भी कमी है. हिमालयन नेशनल पार्क में कई तरह के जानवर और पक्षी पाए जाते हैं लेकिन यहाँ का सबसे बड़ा आकर्षण तो  यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य ही है.  तीर्थान नदी पर पार्क के भीतर हिप्पो चट्टान है जो देखने में हिप्पो  की शक्ल की है. आगे आप जंगल के भीतर दूर तक पैदल जा सकते हैं लेकिन इसके लिए आपके पास कैम्पिंग का पूरा सामन होना चाहिए. तीर्थन नदी इस क्षेत्र की एकमात्र नदी है जिसपर अब भी कहीं कोई बाँध नहीं बनाया गया है और पर्यावरण की दृष्टि से यह इलाका इसी वजह से कुछ सुरक्षित समझा जाता है. लेकिन जिस देश में पर्यावरण को नष्ट कर व्यवसाय बनाने के लिए उद्योगपतियों और राजनीतिज्ञों की  मिलीभगत लगातार काम कर रही हो वहां सवाल यही उठता है कि बकरे की माँ कबतक खैर मनाएगी?  फ़िलहाल तो हमारी सारी उम्मीद पंकी और अंकित जैसे इकलौते व्यक्तियों के प्रयासों पर ही टिकी है जो बेहद मुश्किल हालत में भी इतना महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं.  उम्मीद की जानी चाहिए कि इस क्षेत्र में जिम्मेदार पर्यावरण को बढ़ावा देने के लिए सुविधाओं का विकास किया  जायेगा.

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

धुआंधार में कचरा

धुआंधार में कचरा
जबलपुर के पास स्थित भैरवघाट   और धुंआधार की प्राकृतिक सुन्दरता स्तब्ध कर देने वाली है. लेकिन यहाँ के बाजारों, मंदिरों और आसपास के क्षेत्रों में ढेर-ढेर कचरे और असामाजिक ढंग से गन्दगी फ़ैलाने वालों की भीड़ देखकर लगता है कि यह शहर अपनी महान प्राकृतिक सम्पदा की देखभाल करने एवं इसे सुरक्षित रखने का ज़रूरी सबक न जाने कब सीखेगा. मेरा मन है के मैं जबलपुर के बाशिंदों के नाम लानत भेजूं जो नियमित रूप से यहाँ आते हैं और मूर्तियों के सामने अत्यंत श्रद्धा भाव से माथा टेकने के बाद जो दल बल सहित धुंआधार में दिन भर की पिकनिक बिताकर शाम को थर्मोकोल की प्लेटों, पत्तलों, पेप्सी की बोतलों, चिप्स के ठोंगों और प्लास्टिक के सामन का वीभत्स ढेर इस पवित्र नदी को समर्पित कर आराम से अपने घरों की और लौट जाते हैं.  अपने विशाल ह्रदय के बावजूद  माँ नर्मदा क्या मूर्तियों के सामने मत्था टेकने वाले इन असामाजिक बाशिंदों और प्रकृति  के साथ घोर अन्याय करने वालों के पापों को माफ़ी देने की दरियादिली दिखा पायेगी?
यह एक विचित्र स्थिति है कि अपने जीवन के सारे अभावों के बावजूद हम अति उत्पादन के ऐसे दौर में हैं जहाँ कोई भी वस्तु जिस क्षण उत्पादित होती है उसी क्षण उसका कचरे में तब्दील होना भी तय हो चुका होता है.  यही नहीं आज हम सूचना के ऐसे प्रलय से अभिशप्त हैं जहाँ हमारे विचार भी जन्म लेने के साथ ही बृहत्तर कचरे का हिस्सा बनते चले जाते हैं.  कचरा पैदा करने को रोकना बहुत मुश्किल है लेकिन सच तो यह है कि हमारे देश में कचरे को सँभालने और सार्वजनिक स्थानों को साफ़ करने की कोई मानसिकता ही नहीं है. बहुत पहले किसी संस्था ने टी वी पर एक अभियान चलाया था जिसमें एक गाना था :
कचरा मत फेंको  और फेंको  तो फेंको डब्बे के अन्दर
दमा दम  मस्त  कलंदर 
रेल की पटरी के दोनों और फैले प्लास्टिक के टनों टन ढेरों को देखकर लगता है कि इतने समय के बाद भी हमने कुछ नहीं सीखा है. यह तो तय है कि इस गैर जिम्मदारी की कीमत आखिरकार कोई तो चुकाएगा ही लेकिन तब तक शायद बहुत बहुत देर हो चुकी होगी ! क्रोएशिया  के लेखक इवान क्लिमा कहते हैं :
" अपने इर्दगिर्द बाढ़ के तरह फैलते कचरे के इन पार्थिव और मानसिक ढेरों को हम हल्के अंदाज़ में रफा दफा नहीं कर सकते. कचरे का यह ढेर हमारी हवा और हमारे जल को ज़हरीला बनाता जा रहा है. उतना ही खतरनाक है बौद्धिक कचरे का वह सैलाब जिसके चलते हमारा दिमाग पूरी तरह कुंद  हो चुका है.  मैं समझता हूँ कि इन दोनों ही तरह के ज़हरों में कोई रिश्ता ज़रूर है क्योंकि कचरा चाहे पार्थिव हो या बौद्धिक, इसका विनाशकारी प्रभाव हर हालत में सर्वथा अपरिवर्तनीय होता है!"

बुधवार, 17 मार्च 2010

बाघों की उलटी गिनती


  

 बाघों की उलटी गिनती
रणथम्भोर में पिछले दिनों बाघ के दो और बच्चे गाँव वालों द्वारा ज़हर देकर मार दिए गए.  बाघों की उलटी गिनती टी वी पर महेंद्र सिंह धोनी द्वारा बताई जाती संख्या से भी तेज़ रफ़्तार से नीचे गिर रही है. गाँव वालों ने स्वीकार किया कि बाघ के बच्चे उनकी बकरियों को शिकार बना रहे थे लिहाज़ा उनके लिए बाघ को ज़हर देकर मरना ज़रूरी हो गया. घटना के बाद जंगल के एक अधिकारी ने कहा कि रणथम्भोर में क्षेत्रफल के मुकाबले बाघों की संख्या बहुत अधिक हो गयी है और इसलिए बाघ बस्ती की ओर आ जाते हैं. यह एक गैरजिम्मेदार बयान है क्योंकि रणथम्भोर के ४० बाघों के मुकाबले कॉर्बेट पार्क में लगभग उतने ही क्षेत्रफल में बाघों की तिगुनी संख्या आराम से रह रही है. तो सवाल उठता है कि बाघों को ज़हर से मारकर ख़त्म करने की नौबत  क्यों आई? दरअसल मानव और बाघों के बीच अपनी अपनी स्पेस का संघर्ष ही इस टकराव का असली कारण है. जंगल एवं पार्क के इलाकों से इंसानी बस्तियों को हटाने के लिए इतना कम मुआवजा दिया जाता है कि हटने वाले लोग असंतोष से भरे रहते हैं. यही नहीं बाघ द्वारा मारे जाने वाले मवेशियों के लिए मिलने वाला मुआवजा भी बेहद मामूली होता है. यही नहीं जंगल के अधिकारियों से मिलीभगत के परिणामस्वरूप गाँव वाले अनधिकृत क्षेत्रों में मवेशी चराते हैं. बाघ तो खैर बेहद शर्मीला जानवर है, यह समस्या  बाघ से भी अधिक तेंदुओं पर लागू होती है क्योंकि तेंदुआ अक्सर बस्तियों के आसपास देखा जाता है. कहा जाता है कि उसके लिए कुत्ते मनुष्यों के तंदूरी चिकन जैसे लज़ीज़ होते हैं. मुंबई में संजय गाँधी पार्क में वोट बैंक की राजनीति के तहत पार्क की सीमा के भीतर बसे लोगों को हटाने का काम दिखाने का मनोबल नहीं दिखाया जा  रहा और यही जानवर और इंसान के बीच की ज़मीन कि लड़ाई का असली कारण है. लेकिन जनसँख्या के बढ़ते दबावों के चलते आप पेड़ों के काटने और जंगल की सीमा को घटाते चले जाने कि प्रक्रिया को कब तक रोक पाएंगे. इस मानसिकता तक पहुँचने के लिए जिस तरह के कदमों कि ज़रुरत है उन तक पहुँचने तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी. 

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

बाघ और भारत


'अहा! जिंदगी' पत्रिका में मेरा कालम आता है जिसके पिछले अंक में मैंने बांधवगढ़ के बारे में लिखा है। उसी का एक अंश :

"अभी पिछले दिनों समाचार पत्र में एजेंसी के हवाले से खबर थी कि चीन के दो लोग वहां के आखिरी बाघ को भी खा पीकर साफ़ करने में कामयाब हो गए। हमारे निरामिष देश में शेर के खाए जाने की न तो संभावना है और न ही ज़रुरत , क्योंकि शेर को खत्म करने के कई अधिक प्रभावी और कारगर तरीके हमारे राजा महाराजाओं की जमात से लेकर हमारा व्यापारी , दलाल और उदासीन सामान्य जन एक लम्बे अर्से से जानता है । कहा जाता है की सौ वर्ष पहले हमारे देश में बाघों की गिनती लाखों में होती थी। अब एक अत्यंत धोखादेह गणना के अनुसार कोई दो हज़ार या उस से भी कम बाकी बचे हैं। सरिस्का में गणना के अनुसार कई बाघ थे। फिर अचानक बताया गया कि एक भी नहीं है। दिक्कत यह है कि आजकल हर चीज़ में हमारा मुकाबला चीन से होने लगा है, इसलिए ताज्जुब नहीं अगर किसी दिन अख़बार के तीसरे पन्ने पर खबर मिले की चीन ही नहीं भारत भी अब अपनी धरती से बाघ का अमूल सफाया करने में कामयाब हो गया है!
शेर की खाल , उसके नाख़ून और उसके शारीर के अन्य हिस्सों की तस्करी करने वाले बड़े खिलाडियों को छोड़ दें तो देश के लगभग हर राष्ट्रीय उद्यान में आपको किसी भी कीमत पर शेर देखने के लिए आने वाले तमाशबीनों का हुजूम मिल जायेगा। हर उद्यान की यू एस पी उसके बाघों की संख्या से तय होती है। छोटा से छोटा उद्यान भी आजकल अपने आपको 'टाइगर रिज़र्व' से कम कहलवाया जाना पसंद नहीं करता, फिर चाहे वहां शेर क्या गीदड़ ढूंढ निकलना भी मुश्किल हो। बाघ का नाम आज भी स्थानीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महकमों में सबसे अधिक बिकाऊ है, इसी को देखने और बचाने के नाम पर सबसे अधिक पैसा और साधन जुटाए जाते हैं, जब कि हिम तेंदुआ चिरु और कई दूसरी प्रजातियाँ कहीं अधिक गंभीर संकट में हैं। दुखद यह भी है कि भीड़ के चलते आज रणथम्भोर और गीर जैसे लोकप्रिय उद्यानों की टिकट खिडकियों के आगे भी दलालों एजेंटों वाहन चालकों और जुगत भिड़ाने वाले अधिकारियों का जमावड़ा बढ़ता जा रहा है।"

पिछले दिनों एयर सेल की ओरे से टी वी पर बाघों को बचने का अभियान चलाया जा रहा है। लेकिन यह अभियान क्या करेगा यह साफ़ नहीं है। सिर्फ इरादों से बाघ को बचाया जा सकेगा इसमें भरी संदेह है.