बाघों को लेकर मीडिया की किलो बाइट्स इन दिनों तेज़ से तेजतर सुनाई देने लगी हैं. बालीवुड के सबसे बड़े सितारे अमिताभ बच्चन भी इधर नवरत्न तेल के टेंशन से मिली पेंशन में वक्त काटने के लिए हमारे राष्ट्रीय जानवर बाघ की वकालत में परदे पर उतर आये हैं. लेकिन सदाशयता से ही अगर बाघों की जनसंख्या बढ़नी होती तो अब तक देश में लाख दो लाख हो चुके होते. अंग्रेजी की लिप सर्विस मात्र से बाघों को कितनी सुरक्षा मुहय्या होगी यह हमें समझाने की ज़रुरत नहीं. मेरे एक पर्यावरण मित्र जो अभी हाल ही में ताडोबा से लौटे हैं, कहते हैं कि जंगल बचेगा तब तो बाघ का नंबर आएगा. बाघ के समर्थन में ऑटोग्राफ देकर अपने दायित्व से मुक्त हो जाने वालों के लिए यह समझना ज़रूरी है कि बाघ की गिनती कोई स्वतंत्र आंकड़ा नहीं है, बल्कि जंगल, पेड़, जानवर और पक्षी सब इस परिवेश में एक दूसरे से जुड़े हुए सवालों के जवाब मांगते हैं. हमारे आशावादी विशेषज्ञों का मानना है कि फ़िलहाल यदि जंगलों की कटाई पर अंकुश लगाया जा सके तो आज भी हमारे जंगल लगभग दस हज़ार बाघों को रख सकने में समर्थ हैं. लेकिन यह आंकड़ा तो बहुत दूर की बात है, हम पहले अपना मन तो साफ कर लें कि हमें पर्यावरण चाहिए या नहीं. और मन की इस सफाई की दरकार अमिताभ बच्चन या दूसरे हस्ताक्षरकर्ताओं को नहीं बल्कि उन अधिकारियों और सरकार के प्रतिनिधियों को है जो एक तरफ अपनी लफ्फाजी और लिप सर्विस से बाज़ नहीं आते और दूसरी ओर जिनके हाथ स्वयं उसी डाल को काट रहे होते हैं जिसपर हम और आप बैठे हैं. पर्यावरण के सवाल पर जब रखवाले ही हत्यारों का किरदार अदा करने लगें तो फिर इस विश्वासघात से न जंगल बच सकता है और न ही उसमें रहने वाला बाघ.
चंद्रपुर में स्थित ताडोबा व्याघ्र प्रकल्प के भीतर कई ज़ोन हैं. जंगल में जाने वाली गाड़ियों को एक बार में सिर्फ एक ही ज़ोन में जाने का परमिट मिलता है. गाड़ियों का बिना इजाज़त का एक ज़ोन से दूसरे ज़ोन में प्रवेश करना संगीन अपराध है. लेकिन आप हर रोज़ लाल बत्ती वाली गाड़ियों को ताले खुलवाकर एक ज़ोन से दूसरे में जाता देख सकते हैं और दुखद यह भी है कि इन गाड़ियों में से हरेक में अपने आकाओं को खुश करने में लगा कम से कम एक वन अधिकारी भी साथ दिखाई दे जायेगा. सभी राष्ट्रीय पार्कों की तरह रणथम्भोर भी जून से लेकर सितम्बर तक बंद रहता है. यह वन के जीवों की सुरक्षा एवं ब्रीडिंग का समय होता है जिसमें मनुष्यों का अनावश्यक खलल नुकसानदेह समझा जाता है. पार्कों के इस शाश्वत नियम का उल्लंघन कर अब राजस्थान की सरकार विदेशी पर्यटकों को अगस्त और सितम्बर के महीनों में रणथम्भोर में प्रवेश की विशेष अनुमति देने वाली है ताकि पैसे वाले पर्यटकों को किसी भी कीमत पर बाघ दिखाया जा सके . बहुत से व्यर्थ मामलों पर अपनी टांग अड़ाने वाले जयराम रमेश इस मामले पर अब तक अपनी चुप्पी साधे हैं. बांधवगढ़ में अधिकारियों की मिलीभगत से हुई बाघिन की हत्या का मामला और भी दर्दनाक है. जिला पंचायत के प्रमुख के साथ यहाँ रेंज ऑफिसर न सिर्फ रात के समय बिना इजाज़त के जंगल में घुसे बल्कि अपने वाहन से उन्होंने एक बाघिन पर जानलेवा टक्कर भी मारी जिसके बाद उसकी मृत्यु हो गयी.
हमारे जंगलों में रखवालों के हत्यारों में बदलने की यह घटनाएँ आम हो चुकी हैं. हमारा शासक और अधिकारी वर्ग जब तक अपनी शक्ति के हथियार डालकर सच्चे मन से पर्यावरण का सम्मान करना नहीं सीखता, तब तक शाहरुख़ के डान की ही तरह अपने इस खूबसूरत जीव एवं इसके परिवेश को बचाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी होगा.
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
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